Sunday, August 21, 2011
Wednesday, August 17, 2011
ख्वाब देख ख्वाबों में ही चूर था /
आजकल एक आस सी रहने लगी है मन में, कि एक ऐसा दिन आएगा जिसका इंतज़ार युगों से है / ऐसा प्रतीत हो रहा है कि परिवर्तन बस चौखट पर ही है, लेकिन यह भ्रम है मेरा / परिवर्तन रुपी मृग मरीचिका, जिसका अस्तित्व अपने आप में ही नहीं है / हम सपना तो देख रहे है एक अच्छे कल की, लेकिन कल को अच्छा बनाने के लिए कर क्या रहे है ? अपनी जिंदगी को सरल बनाने और अपने आप को तमाम सुख के साधनों से मढने के अलांवा कर क्या रहे है / खुद को जगाते है और फिर मन बहलाकर सुलाते है / सपना क्रान्ति का देखते है लेकिन उसके लिए करते कुछ नहीं सिवाय बातों के / हर रोज आराम कुर्सी पर बिना चीनी के काली काफ़ी के साथ सोचते है कि अब समय आ गया है, अब और नहीं चुप रहना है / काफ़ी खतम होते ही यह विचार भी कही और चले जाते है, और फिर से निन्यान्बे का फेर / काफ़ी के मग में इतनी काफ़ी क्यों नहीं होती कि वो तब खतम हो जब विचार लक्ष्य बन चुका हो ? कल एक बड़ा मग खरीदूंगा फिर देखता हूँ कि, कैसे विचार बादलों की तरह उड जाते है बिना बरसे ?
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